अनजान सी है मंजिल
अनजान ही डगर है
मंजिले अपनी खो गई
दर-दर भटक रहे है...!!
बीच में है साँस अटकी
कबर पे पैरो के निशा है
कहा ले जायेगी ये आंधी
ना साथ अब अपनों का कारवा है !!
कोई नही यहाँ,
मैं हू और बस मेरा जहा है
खुनी हसरतो से लड़ते-लड़ते
रूह भी हुई लहू-लुहान है...!!
हर पल आती-जाती साँसों का
ज्यूँ क़र्ज़ सा चढा है ,
मौत है देन-दार जिसकी
जिंदगी ने बोझ सब सहा है ...!!
Friday, April 24, 2009
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