Friday, April 24, 2009

अनजान मंजिल..

अनजान सी है मंजिल
अनजान ही डगर है
मंजिले अपनी खो गई
दर-दर भटक रहे है...!!

बीच में है साँस अटकी
कबर पे पैरो के निशा है
कहा ले जायेगी ये आंधी
ना साथ अब अपनों का कारवा है !!

कोई नही यहाँ,
मैं हू और बस मेरा जहा है
खुनी हसरतो से लड़ते-लड़ते
रूह भी हुई लहू-लुहान है...!!

हर पल आती-जाती साँसों का
ज्यूँ क़र्ज़ सा चढा है ,
मौत है देन-दार जिसकी
जिंदगी ने बोझ सब सहा है ...!!

7 comments:

Divya Narmada said...

रख मजबूती से कदम, मंजिल चूमे पग.
हर पथ की लम्बाई, रहे नापते डग.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"हर पल आती-जाती साँसों का
ज्यूँ क़र्ज़ सा चढा है ,
मौत है देन-दार जिसकी
जिंदगी ने बोझ सब सहा है ...!!"
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना!
आप का ब्लाग भी बहुत अच्छा लगा।
आप मेरे ब्लाग पर आएं,आप को यकीनन अच्छा लगेगा।

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

कहा ले जायेगी ये आंधी
ना साथ अब अपनों का कारवा है !!

सुन्दर भाव.... कुछ पाने की ललक को दर्शाती है.....

Naveen Tyagi said...

achchhi rachana hai

Arshia Ali said...

इतने सहज तरीके से कैसे बयां कर लेती हैं आप दिल की बातें, सोचकर हतप्रभ हो रही हूं। बधाई।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।

Rohit Jain said...

Achchi rachna hai. Shukriya

Apanatva said...

bahut sunder abhivykti hai bhavo kee......